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नज़्म
ये खेप जो तू ने लादी है सब हिस्सों में बट जावेगी
धी पूत जँवाई बेटा क्या बंजारन पास न आवेगी
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
ये ख़ाक-ओ-ख़ूँ के पुतले अपनी जाँ पे खेलते हुए
वो ज़ीस्त की कराह जिस से बे-क़रार है फ़ज़ा
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
दरिया पुल पर चलता था पानी में रेलें चलती थीं
लंगूरों की दुम पर अंगूरों की बेलें पकती थीं