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नज़्म
कली पे बेले की किस अदा से पड़ा है शबनम का एक मोती
नहीं ये हीरे की कील पहने कोई परी मुस्कुरा रही है
जोश मलीहाबादी
नज़्म
ऐ अदब ना-आश्ना ये भी नहीं तुझ को ख़याल
नंग है बज़्म-ए-सुख़न में मदरसे की क़ील-ओ-क़ाल
जोश मलीहाबादी
नज़्म
हम ने तुम्हारी सब की सब क़ुव्वतों का फ़ैसला किया था
क़ील-ओ-क़ाल की गुंजाइश बाक़ी नहीं है
आशुफ़्ता चंगेज़ी
नज़्म
ठोंक दी जाएगी अब शायद सभी ज़ेहनों में कील
उठ रही है हर तरफ़ जलते अँधेरों की फ़सील