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नज़्म
तारीख़ है इस की एक अमल तहलीलों का तरकीबों का
सम्बंध वो दो आदर्शों का संजोग वो दो तहज़ीबों का
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
भय्या के आदर्शों को कभी भुला न पाया मैं
पर अब जो मैं देख रहा हूँ समाज में बस्ते लोगों को
अबु बक्र अब्बाद
नज़्म
टूटे आदर्शों के शीशे गिनता है वो बैठा कौन
मेरे हर इज़हार में पिन्हाँ बे-मा'नी ख़ामोश क्यूँ
बाक़र मेहदी
नज़्म
ज़रा सी उम्र में करते हों मुझ को मुतअस्सिर
मोहल्ले टोले के गुमनाम आदमिय्यों के