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नज़्म
तोड़ देते हैं जहालत के अँधेरों का तिलिस्म
इल्म की शम्अ' जलाते हैं हमारे उस्ताद
कैफ़ अहमद सिद्दीकी
नज़्म
कि अब तक मैं अँधेरों की धमक में साँस की ज़र्बों पे
चाहत की बिना रख कर सफ़र करता रहा हूँगा
मोहसिन नक़वी
नज़्म
चाँद क्यूँ अब्र की उस मैली सी गठरी में छुपा था
उस के छुपते ही अंधेरों के निकल आए थे नाख़ुन
गुलज़ार
नज़्म
मजीद अमजद
नज़्म
क्या कहूँ मुझ को कहाँ लाई मिरी उम्र-ए-रवाँ
आँख खोली तो हर इक सम्त अँधेरों का समाँ