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नज़्म
ख़ाक-ए-सहरा पे जमे या कफ़-ए-क़ातिल पे जमे
फ़र्क़-ए-इंसाफ़ पे या पा-ए-सलासिल पे जमे
साहिर लुधियानवी
नज़्म
'गाँधी' हो कि 'ग़ालिब' हो इंसाफ़ की नज़रों में
हम दोनों के क़ातिल हैं दोनों के पुजारी हैं
साहिर लुधियानवी
नज़्म
अल्लाह अल्लाह किस क़दर इंसाफ़ के तालिब हो आज
मीर-जाफ़र की क़सम क्या दुश्मन-ए-हक़ था 'सिराज'
जोश मलीहाबादी
नज़्म
कुछ देर नहीं अंधेर नहीं इंसाफ़ और अदल-परस्ती है
इस हाथ करो उस हाथ मिले याँ सौदा दस्त-ब-दस्ती है