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नज़्म
ज़र दाम-दिरम का भांडा है बंदूक़ सिपर और खांडा है
जब नायक तन का निकल गया जो मुल्कों मुल्कों हांडा है
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
शमशीर तबर बंदूक़ सिनाँ और नश्तर तीर नहरनी है
याँ जैसी जैसी करनी है फिर वैसी वैसी भरनी है
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
मैले कपड़ों में सही लोग मोहब्बत से जहाँ बैठते हैं
किसी बंदूक़ का दस्ता भी नहीं होना तुम्हें
फ़ाज़िल जमीली
नज़्म
हों हर इक बंदूक़ में रबड़ी के रंगीं कारतूस
और हर इक टैंक की टँकी में मौसम्मी का जूस
राजा मेहदी अली ख़ाँ
नज़्म
देखो शायद तुम्हारी बंदूक़ की नाली में न पड़ी हो
मैं ने तारों भरे आसमान की तरफ़ हसरत से देखा