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नज़्म
जाहिल को तौक़ीर है बख़्शी आलिम को बन-बास दिया है
और आलिम तुझ किज़्ब-ए-सिफ़त को महव-ए-हैरत ताक रहा है
अबु बक्र अब्बाद
नज़्म
मैं कि ख़ुद अपनी ही आवाज़ के शो'लों का असीर
मैं कि ख़ुद अपनी ही ज़ंजीर का ज़िंदानी हूँ
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
ध्यान के अंदर पथ पे बीती घड़ियाँ उड़ती आएँ
मैं सीता बन-बास को निकली बिरह की अग्नी जलाए
असद मोहम्मद ख़ाँ
नज़्म
वतन से रुख़्सत-ए-'सिद्धार्थ' 'राम' का बन-बास
वफ़ा के ब'अद भी 'सीता' की वो जिला-वतनी