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नज़्म
बहुत ही हम तो हैं बे-शर्म हाँ मगर अक्सर
हमारे चेहरे पे लाए हैं लाज दो थप्पड़
राजा मेहदी अली ख़ाँ
नज़्म
साहिर लुधियानवी
नज़्म
वो क्या है कि बस शाम की आस ज़रा टूट जाती है
घड़ी ऐसे जैसे आवाज़ों के धक्कों से चलती हो