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नज़्म
कामनी ख़्वाब की लौ में हँसती हुई कामनी
सोला बरस की तक़्वीम में फ़स्ल-ए-गुल का कोई तज़्किरा
अख़्तर उस्मान
नज़्म
जो शायद अब मुझे तक़वीम-ए-पारीना समझते हैं
मैं डरता हूँ कि इस दुनिया में कोई भी नहीं मेरा
उबैदुर्रहमान आज़मी
नज़्म
मेरी तक़्वीम में भी महीना है ये
इस महीने कई तिश्ना-लब साअतें, बे-गुनाही के कतबे उठाए हुए