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नज़्म
दीवारों के नीचे आ आ कर यूँ जम्अ हुए हैं ज़िंदानी
सीनों में तलातुम बिजली का आँखों में झलकती शमशीरें
जोश मलीहाबादी
नज़्म
मुझे याद आया दोनों साथ ही कॉलेज में पढ़ते थे
वो सारे दोस्तों का जम्अ होना मेरे कमरे में
ख़लील-उर-रहमान आज़मी
नज़्म
जम्अ' हुए हैं चौराहों पर आ के भूके और गदागर
एक लपकती आँधी बन कर एक भबकता शो'ला हो कर
साहिर लुधियानवी
नज़्म
मस्जिदों में सब जम्अ' हो जाएँगे ख़ुर्द-ओ-कलाँ
दूर हो दिल की कुदूरत ये सवाल-ए-ईद है
निसार कुबरा अज़ीमाबादी
नज़्म
जम्अ हैं क़ौमी तरक़्क़ी के लिए अर्बाब-ए-क़ौम
रश्क-ए-फ़िरदौस उन के क़दमों से ये शादी-ख़ाना है