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नज़्म
कभी हम-सिन हसीनों में बहुत ख़ुश-काम ओ दिल-रफ़्ता
कभी पेचाँ बगूला साँ कभी ज्यूँ चश्म-ए-ख़ूँ-बस्ता
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
जियूँगा शाम-ए-दीद की निशानियाँ लिए हुए
न देखा आँख उठा के अहद-ए-नौ के पर्दा-दारों ने
फ़िराक़ गोरखपुरी
नज़्म
चश्मा-ए-सर ज्यूँ है जो बहता रहेगा याँ वही
सब उतर जाएँगी चढ़ चढ़ नद्दियाँ बरसात की
अल्ताफ़ हुसैन हाली
नज़्म
घूम-घाम के लौटे तो था हाथ में एक अंगोछा
उसे दिखा कर कहा कि ज्यूँ ही चोर को मैं ने पकड़ा
मेहदी प्रतापगढ़ी
नज़्म
बीवी मिरी बीमार है अच्छा है कि मर जाए
अब मैं तिरी ज़ुल्फ़ों ही के साए में जियूँगा