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नज़्म
अपने ही लिक्खे हुए चंद ख़तों की ख़ातिर
मुझ से ख़ाइफ़ ही नहीं ख़ुद से भी बेज़ार हो तुम
प्रेम वारबर्टनी
नज़्म
सो इस चर्ख़े की कूक अब किस लिए चुप है
कहानी का हिदायत-कार भी शायद तिरी आँखों की गहराई से ख़ाइफ़ था
रहमान फ़ारिस
नज़्म
सो इस चर्ख़े की कूक अब किस लिए चुप है
कहानी का हिदायत-कार भी शायद तिरी आँखों की गहराई से ख़ाइफ़ था
रहमान फ़ारिस
नज़्म
किसी से मशवरा करना ज़रा ख़ुद से निकल बाहर
कभी ख़ाइफ़ अगर हो ज़िंदगी के पेच-ओ-ख़म से तुम
डॉ भावना श्रीवास्तव
नज़्म
वगर्ना यूँ रस्ते में अपने इरादे की हितक न करता
यूँ अपने ही साए से बे-कार ख़ाइफ़ न होता