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नज़्म
मेरा रस्ता क़ब्रिस्तान से हो कर आगे जाता है
उस रस्ते से और भी लोग गुज़र कर आगे जाते हैं
ख़लीक़ुर्रहमान
नज़्म
अली-मोहसिन के मामूँ लुट के अम्बाला से जब लाहौर आए थे
कलाम-ए-पाक अलम और सज्दा-गाहें साथ लाए थे
हारिस ख़लीक़
नज़्म
हर शाख़-ए-तमन्ना पर मेरी हर-चंद कि बर्ग-ओ-बार लगे
वो पेड़ जो मेरे नाम का है, हर आँख को साया-दार लगे