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नज़्म
भौंरे शबनम की ज़ंजीरें ले कर दौड़े
और बेचैन परों में अन-चखी परवाजों की आशुफ़्ता प्यास जला दी
परवीन शाकिर
नज़्म
धूप पड़ी, तो खुल गई आँखें, खुल गया सारा भेद
ग़श खाया, तो दौड़े आए मुंशी, पंडित, वेद
मुस्तफ़ा ज़ैदी
नज़्म
मुफ़्लिस कोई बुलावे तो मुँह को छुपाते हैं
शक्कर का हलवा सुनते ही बस दौड़े जाते हैं
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
चाहा कि मैं भी निकलूँ उन में से छुट-छुटा कर
दौड़े कई ये कह कर जाता है दम चुरा कर
नज़ीर अकबराबादी
नज़्म
सुब्ह-सलोनी गर्म चाय की प्याली ले कर दौड़ी
कैसा थर-थर काँप रहे हैं हाए दिसम्बर बाबा