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नज़्म
बस्ती के सजीले शोख़ जवाँ बन बन के सिपाही जाने लगे
जिस राह से कम ही लौट सके उस राह पे राही जाने लगे
साहिर लुधियानवी
नज़्म
हाए उन को भी ख़बर क्या कि वो इक ज़ख़्म-नसीब
ज़िंदगी के लिए निकला था जो राही बन कर