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नज़्म
तारीख़ है इस की एक अमल तहलीलों का तरकीबों का
सम्बंध वो दो आदर्शों का संजोग वो दो तहज़ीबों का
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
दौर-दौरा लखनऊ में भी था क़ब्ल-अज़-इंक़लाब
कर लिया था नुक्ता-संजों ने इसी को इंतिख़ाब
सफ़ी लखनवी
नज़्म
मैं हूँ 'मजाज़' आज भी ज़मज़मा-ए-संज-ओ-नग़्मा-ख़्वाँ
शाइर-ए-महफ़िल-ए-वफ़ा मुतरिब-ए-बज़्म-ए-दिलबराँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
हैं तो पैमाने वही लेकिन वो मय मिलती नहीं
नग़्मा-संजों में किसी से तेरी लय मिलती नहीं