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नज़्म
बुला रहे हैं मुझे मिरे वास्ते क़यामत उठा रहे हैं
ग़ज़ब की उस बर्फ़-बस्ता ठंडी हवा में सैलाब चाँदनी का
अब्दुल अज़ीज़ फ़ितरत
नज़्म
वादी-ए-कश्मीर है या चश्मा-ए-क़ुदरत है ये
गोशे गोशे में जो बिखरी बे-बहा दौलत है ये
जमील अहमद जायसी
नज़्म
मुश्किलें इस तरह हल होती हैं जोश-ए-अज़्म से
बह निकलती हैं चटानें जिस तरह सैलाब में
सय्यद वहीदुद्दीन सलीम
नज़्म
आँधियाँ होती हैं क्या, तूफ़ान कहते हैं किसे!
पहले तो मिट्टी की इक हस्ती बना, फिर मुझ से पूछा