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नज़्म
वही सितारे हैं, मगर कहाँ वो माहताब-ए-हिन्द
वही है अंजुमन, मगर कहाँ वो सद्र-ए-अंजुमन
जिगर मुरादाबादी
नज़्म
एक ख़िज़्र-ए-अस्र-ए-हाज़िर इक कलीम-ए-अहद-ए-नौ
एक सद्र-ए-महफ़िल-ए-रुहानियाँ पैदा हुआ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
ये महफ़िल आ ही गई रोज़-ओ-शब की सरहद पर
जनाब-ए-सद्र भी अब सो चुके हैं मसनद पर
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
ऐ शिकम मेरे तन-ए-फ़ानी के सद्र-ए-अंजुमन
''तू अगर मेरा नहीं बनता न बन अपना तो बन''
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
ग़ुलामान-ए-रसूलुल्लाह की तकफ़ीर करते हैं
हमेशा इंशिराह-ए-सद्र से तक़रीर करते हैं