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नज़्म
जो सुब्ह ने बंसरी बजाए हवाएँ करवट बदल रही हैं
वसीअ' दरिया की हल्की मौजें तड़प रही हैं उछल रही हैं
अमीर औरंगाबादी
नज़्म
जो इंतिज़ार की दहलीज़ पर सितारा बनी बैठी हैं
कभी तो तुलू-ए-आफ़्ताब शब के दहाने पर
साइमा जबीं महक
नज़्म
आलम-ए-आब-ओ-ख़ाक में तेरे ज़ुहूर से फ़रोग़
ज़र्रा-ए-रेग को दिया तू ने तुलू-ए-आफ़्ताब!