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नज़्म
ये जो तीतर और चकोर हैं वही पकड़ें उन को जो चोर हैं
मैं चकोर-अकोर का क्या करूँ मिरी फ़ाख़्ता कोई और है
दिलावर फ़िगार
नज़्म
फ़ाख़्ता जैसे किसी पेड़ की शाख़ों में छुपी बैठी हो
साँस सीने में किसी तीर की मानिंद उतर जाती है
अहमद ज़फ़र
नज़्म
शहादतों के रम्ज़ पर सिंघार भी लुटा गया
जो मुड़ के देखता हूँ फ़ाख़्ता का अहमरीं लहू
अम्बर बहराईची
नज़्म
हर तरफ़ फैली हुई बारूद की है बू मगर
फ़ाख़्ता बैठी हुई है कोहर के उस पार देख