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नज़्म
उठ रही है कहीं क़ुर्बत से तिरी साँस की आँच
अपनी ख़ुशबू में सुलगती हुई मद्धम मद्धम
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
अब मैं वो जज़्बा-ए-मासूम कहाँ से लाऊँ
मेरे साए से डरो तुम मिरी क़ुर्बत से डरो
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
माज़ी ओ हाल की तफ़रीक़ वो क़ुर्बत ये फ़िराक़
प्यार गुलशन से चला आया है ज़िंदानों में
क़तील शिफ़ाई
नज़्म
क़ुर्बत-ए-गुल किस क़दर जाँ-बख़्श है ख़ारों से पूछ
चाँद की तनवीर में क्या लुत्फ़ है तारों से पूछ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
तेरी क़ुर्बत के सायों को धुंदलाहटों में बदलते हुए
देखने के लिए ज़िंदा रहना पड़ा है