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नज़्म
किसी लंगर-शिकस्ता नाव की मानिंद धारे पर रवाँ हो जाऊँ
हर इक मौज के हमराह डूबूँ और उभर आऊँ
बशर नवाज़
नज़्म
उठाओ लंगर और बादबान खोल दो
हवाएँ तेज़ हैं तो क्या ये लहरें शोला-रेज़ हैं तो क्या