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नज़्म
अगर मक़्सूद-ए-कुल मैं हूँ तो मुझ से मावरा क्या है
मिरे हंगामा-हा-ए-नौ-ब-नौ की इंतिहा क्या है
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
उसे कहना मोहब्बत दूर है रस्मों-रिवाजों से
उसे कहना मोहब्बत मावरा तख़्तों से ताजों से
इरुम ज़ेहरा
नज़्म
बिछी हुई है बिसात जिस की न इब्तिदा है न इंतिहा है
बिसात ऐसा ख़ला है जो वुसअत-ए-तसव्वुर से मावरा है
ज़िया जालंधरी
नज़्म
اگر مقصود کل ميں ہوں تو مجھ سے ماورا کيا ہے
مرے ہنگامہ ہائے نو بہ نو کي انتہا کيا ہے؟
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
या मुझे क़ुल्ज़ुम-ए-ख़ुद-फ़रामोशी-ए-मावरा में डुबो ले
ख़्वाब-दर-ख़्वाब बस एक ही ख़्वाब है