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नज़्म
ख़ुफ़्ता-ख़ाक-ए-पय सिपर में है शरार अपना तो क्या
आरज़ी महमिल है ये मुश्त-ए-ग़ुबार अपना तो क्या
अल्लामा इक़बाल
नज़्म
कोई दम बादबान-ए-कश्ती-ए-सहबा को तह रक्खो
ज़रा ठहरो ग़ुबार-ए-ख़ातिर-ए-महफ़िल ठहर जाए
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
जो चलते हैं उन्हीं रस्तों पे जो मंज़िल नहीं रखते
ये मजनूँ अपनी नज़रों में कोई महमिल नहीं रखते