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नज़्म
इसे मालूम है वो किस तरह मग़्मूम रहती थी
किसी के ग़म में लुत्फ़-ए-ज़ीस्त से महरूम रहती थी
अख़्तर शीरानी
नज़्म
पर मिरे गीत तिरे दुख का मुदावा ही नहीं
नग़्मा जर्राह नहीं मूनिस-ओ-ग़म ख़्वार सही
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
एक बेबस को मगर देते हो क्यूँ ऐसा फ़रेब
अब मैं किस रह में ग़म-ए-दिल का मुदावा ढूँडूँ
दाऊद ग़ाज़ी
नज़्म
मैं ने समझा था तिरी पुर्सिश-ए-ग़म से शायद
दर्द कम होगा ग़म-ए-दिल का मुदावा होगा
नियाज़ गुलबर्गवी
नज़्म
जिस्म और जाँ की तग-ओ-ताज़ की हर पुर्सिश में
दर्द-ओ-ग़म हसरत-ओ-महरूमी की हर काहिश में
वहीद अख़्तर
नज़्म
ख़ुद-फ़रेबी का ये अंदाज़ है गो वाक़िफ़ हूँ
ख़ुद-फ़रेबी तो नहीं ग़म का मुदावा लेकिन