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नज़्म
कहीं चलने को आगे जिस का वाज़ेह कुछ तसव्वुर ही नहीं कोई
हमारे सब मसाइल जिन का हम पर बोझ है इतना
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
कौन सी ज़रूरी बात है जो अन-कही रह गई है
सारे फ़लसफ़े सारे नज़रिये सारे मसाइल तो बयान हो चुके
मोहम्मद हनीफ़ रामे
नज़्म
क्या फ़क़त देखते रहने से मसाइल की गिरह खुलती है
क्या फ़क़त आँख की पुतली में है महफ़ूज़ ख़ुदाई सारी
शहज़ाद अहमद
नज़्म
अपने मज़हब के मसाइल से तबीअ'त थी नुफ़ूर
रहते थे ज़िक्र-ए-बुतान-ए-सीम-तन की धुन में चूर