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नज़्म
वो जो हमराज़ रहा हाज़िर-ओ-मुस्तक़बिल का
उस के ख़्वाबों की ख़ुशी रूह का ग़म ले के चलो
साहिर लुधियानवी
नज़्म
मंज़िल है ये होश-ओ-ख़बर की इस आबाद ख़राबे में
देखो हम ने कैसे बसर की इस आबाद ख़राबे में
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
सख़्त हैराँ हूँ कि महफ़िल में तुम्हारी और ये ज़िक्र
नौ-ए-इंसानी के मुस्तक़बिल की अब करते हो फ़िक्र
जोश मलीहाबादी
नज़्म
सफ़्हा-ए-दिल से मिटाती अहद-ए-माज़ी के नुक़ूश
हाल ओ मुस्तक़बिल के दिलकश ख़्वाब दिखलाती हुई
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
मुस्तक़बिल की किरनें भी थीं हाल की बोझल ज़ुल्मत भी
तूफ़ानों का शोर भी था और ख़्वाबों की शहनाई भी
साहिर लुधियानवी
नज़्म
अपने मुस्तक़बिल से ताग़ूती तमद्दुन को है यास
दीदनी है दुश्मन-ए-इंसानियत का इज़्तिराब
वामिक़ जौनपुरी
नज़्म
मिरे माज़ी ओ मुस्तक़बिल सरासर महव हो जाएँ
मुझे वो इक नज़र इक जावेदानी सी नज़र दे दे