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नज़्म
तुझ से खेली हैं वो महबूब हवाएँ जिन में
उस के मल्बूस की अफ़्सुर्दा महक बाक़ी है
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
मल्बूस परेशाँ दिल ग़मगीं इफ़्लास के नश्तर खाते हैं
मस्जिद के फ़रिश्ते इंसाँ को इंसान से कमतर पाते हैं
नुशूर वाहिदी
नज़्म
ग़र्क़ होंगे आतिशीं मल्बूस में मंज़र तमाम
इस तरह लेगा ज़माना जंग का ख़ूनीं सबक़
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
कोढ़ के धब्बे छुपा सकता नहीं मल्बूस-ए-दीं
भूक के शोले बुझ सकता नहीं रूह-उल-अमीं