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नज़्म
मग़रिब के मोहज़्ज़ब मुल्कों से कुछ ख़ाकी-वर्दी-पोश आए
इठलाते हुए मग़रूर आए लहराते हुए मदहोश आए
साहिर लुधियानवी
नज़्म
बहुत कुछ सोच कर निकले थे घर से हम
कि हिजरत कर रहे हैं इक मोहज़्ज़ब मुल्क की जानिब
मोहम्मद सालिम
नज़्म
मुहीब फाटकों के डोलते किवाड़ चीख़ उठे
उबल पड़े उलझते बाज़ुओं चटख़ती पिस्लियों के पुर-हिरास क़ाफ़िले