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नज़्म
कि जैसे गुलिस्ताँ ही इक आईना है
इसी आईने से हर इक शक्ल निखरी सँवर कर मिटी और मिट ही गई फिर न उभरी
मीराजी
नज़्म
रंग में डूब के निखरी है फ़ज़ा आज की रात
दामन-ए-फ़र्श में है नूर-ए-ख़ुदा आज की रात
राम प्रकाश राही
नज़्म
रौशनी निखरी हुई है कोहर के उस पार देख
तीरगी सहमी हुई है कोहर के उस पार देख