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नज़्म
मज़हब-ए-इंसानियत का पासबाँ कोई न था
कारवाँ लाखों थे मीर-ए-कारवाँ कोई न था
कुँवर महेंद्र सिंह बेदी सहर
नज़्म
कोई दौलत-मंद इंसाँ हो कि हो कोई ग़रीब
कोई रिश्ते-दार हम-साया हो या कोई रक़ीब