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नज़्म
साहिर लुधियानवी
नज़्म
देख कर तेरा ढला मनका नहीं होता है चूर
गर्दनों के ख़म को सख़्ती बख़्शने वाला ग़ुरूर
जोश मलीहाबादी
नज़्म
मुझ में ऐ यार मिरे कोई कमालात न देख
ख़्वाब वो हूँ जो कभी भी न हक़ीक़त में ढला