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नज़्म
हर रात मेरी आत्मा अपनी पहचान खोती है
मेरी माँ का भी तो यही काम था नहीं जानती मेरे पिता का क्या नाम था
अंकिता गर्ग
नज़्म
जब चाँदनी खुलती है हर-सू हर ज़र्रा ताबाँ होता है
जब छूट से माह-ओ-अंजुम की दरिया में चराग़ाँ होता है
सयय्द महमूद हसन क़ैसर अमरोही
नज़्म
क्यों अपने जौहर खोती हो इस गंदी बस्ती में आ कर
डर है कि न तुम पर हो जाए हम लोगों की सोहबत का असर
सलाम संदेलवी
नज़्म
तुझ पे उट्ठी हैं वो खोई हुई साहिर आँखें
तुझ को मालूम है क्यूँ उम्र गँवा दी हम ने
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
कल और आएँगे नग़्मों की खिलती कलियाँ चुनने वाले
मुझ से बेहतर कहने वाले तुम से बेहतर सुनने वाले