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नज़्म
ये ज़लज़ले ये आँधियाँ ये बर्क़ ओ आतिश ओ शरर मिरे मिज़ाज ही सही
मगर सुकून पा के जब भी शादमाँ हुआ हूँ
कमाल अहमद सिद्दीक़ी
नज़्म
लिया है कितने बहिश्तों से इंतिक़ाम न पूछ
गुलों के दाम ख़रीदे हैं कितने बर्क़-ओ-शरार
मंज़ूर हुसैन शोर
नज़्म
मुज़्दा ऐ दोस्त कि वो जान-ए-बहार आ पहुँचा!
अपने दामन में लिए बर्क़-ओ-शरार आ पहुँचा!