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नज़्म
जी में आता है कि अब अहद-ए-वफ़ा भी तोड़ दूँ
उन को पा सकता हूँ मैं ये आसरा भी तोड़ दूँ
असरार-उल-हक़ मजाज़
नज़्म
जिस्म की लज़्ज़तों नफ़्स की शहवतों में भटकते रहें
सारे बे-आसरा ग़म-गज़ीदों को इबरत का ज़रिया समझ कर