aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
परिणाम "इतरा"
चलते हैं झोंके सर्द हवा केझूम रहे हैं फूल इतरा के
चाँदी की अँगूठी पे जो सोने का चढ़ा झोलओछी थी लगी बोलने इतरा के बड़ा बोल
तस्ख़ीर की सूरत बिफरना चाहता थाऔर इतरा हूँ
मैं तो इतना जानता हूँमेरी तमजीद-ओ-परसतिश लफ़्ज़ की क़िरात में ढलती है
ज़िंदगी इतरा रही है आज तेरे नाम परनाज़ है पैग़म्बरों को भी तिरे पैग़ाम पर
यादें बचपना और फिर लड़कपन ओढ़ करइतरा के चलती हैं
अपनी करवटों में इतरा रही हूँजिस के नुक़ूश बिलोरीं बोतल पर रक़्स करते हैं
क्या कहा उस ने मुझे याद नहीं है लेकिनइतना मालूम है ख़्वाबों का भरम टूट गया!
इतनी क़ुर्बत है तो फिर फ़ासला इतना क्यूँ हैदिल-ए-बर्बाद से निकला नहीं अब तक कोई
हवाएँ इत्र-बेज़ होंतो शौक़ क्यूँ न तेज़ हों
मुझे बहलने दो रंज-ओ-ग़म से सहारे कब तक दिया करोगीजुनूँ को इतना न गुदगुदाओ, पकड़ लूँ दामन तो क्या करोगी
कैसे जम कर रह से गए होइतना मत अंधेर करो तुम
दर्द इतना था कि उस रात दिल-ए-वहशी नेहर रग-ए-जाँ से उलझना चाहा
ये सफ़र इतना मुसलसल है कि थक हार के भीबैठ जाता हूँ जहाँ छाँव घनी होती है
''मैं धूप में जल के इतना काला नहीं हुआ थाकि जितना इस रात मैं सुलग के सियह हुआ हूँ''
जिस से मिलती है नज़र बोसा-ए-लब की सूरतइतना रौशन कि सर-ए-मौजा-ए-ज़र हो जैसे
तो मैं कहता हूँ के लो आज नहा कर निकला!वर्ना इस घर में कोई सेज नहीं इत्र नहीं है
इतना सन्नाटा कि जैसे हो सुकूत-ए-सहराऐसी तारीकी कि आँखों ने दुहाई दी है
वो आँख जिस के बनाव प ख़ालिक़ इतराएज़बान-ए-शेर को तारीफ़ करते शर्म आए
न गुमरही की रात काशब-ए-गुनाह की लज़्ज़तों का इतना ज़िक्र कर चुका
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