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नज़्म
कहीं ता'मीर करती है इबादत-गाह फ़ित्नों से
कहीं ख़ुद ही इबादत-गाह को मिस्मार करती है
रहबर जौनपूरी
नज़्म
इस लिए मेरा शुमार क़ातिलों में किया जाना चाहिए
ये इबादत-गाहें जिस का घर कही जाती हैं
अनवर सेन रॉय
नज़्म
क़दम क़दम पर झुलसे झुलसे ख़्वाब पड़े हैं राहों में
सुब्ह को जैसे काले काले दिए इबादत-गाहों में
अहमद नदीम क़ासमी
नज़्म
और कहफ़ के ग़ार में झाँकूँ जहाँ बैठे हुए
असहाब माबूद-ए-हक़ीक़ी की इबादत में मगन हैं