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नज़्म
हर इक लम्हा इक लम्हा-ए-जावेदाँ है
क़लम जैसे बूढ़ा सिपाही तमाशा-ए-अहल-ए-हुनर देखता हो
कैलाश माहिर
नज़्म
उँगलियाँ ख़ून से तर दिल-ए-कम-ज़र्फ़ को है वाहम-ए-अर्ज़-ए-हुनर
दिन की हर बात हुई बे-तौक़ीर