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नज़्म
बहुत मजबूर हो कर इल्तिजा-ए-रहम की मैं ने
मिरा सर अपने सीने से लगा लेती तो अच्छा था
द्वारका दास शोला
नज़्म
न बद-ज़नी की हो कुल्फ़त न डर सज़ा का हो
न इल्तिजा-ए-करम से करूँ मैं ख़ुद को हक़ीर