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नज़्म
लिक्खा हुआ है क़िस्मत-ए-उम्मीद-वार में
''उड़ती फिरेगी ख़ाक तिरी कू-ए-यार में''
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
वो तो हो जाता है मुँह में ले के रोटी को फ़रार
बाक़ी-माँदा फिर वही उमीद-वार उमीद-वार
सय्यद मोहम्मद जाफ़री
नज़्म
सियाह रातों के बे अमाँ रास्तों पे छिटके हुए ये चेहरे
कि जैसे पतझड़ में बिखर गए हों