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नज़्म
शायरी और मंतक़ी बहसें ये कैसा क़त्ल-ए-आम
बुर्रिश-ए-मिक़राज़ का देता है ज़ुल्फ़ों को पयाम
जोश मलीहाबादी
नज़्म
हम ने तुम्हारी सब की सब क़ुव्वतों का फ़ैसला किया था
क़ील-ओ-क़ाल की गुंजाइश बाक़ी नहीं है
आशुफ़्ता चंगेज़ी
नज़्म
हुब्ब-ए-वतन की जिंस का है क़ह्त-साल क्यूँ
हैराँ हूँ आज-कल है पड़ा उस का काल क्यूँ
मोहम्मद हुसैन आज़ाद
नज़्म
जिन के हर लफ़्ज़ में नश्तर है निगाहों में सिनाँ
कार-ख़ानों में घुटे जाते हैं जिन के अरमाँ