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नज़्म
हज़ारों ख़्वाहिशें अंगड़ाइयाँ लेती हैं सीने में
जहान-ए-आरज़ू का ज़र्रा ज़र्रा गुनगुनाता है
अली सरदार जाफ़री
नज़्म
फिर भी जाने किस तरह शीर-ओ-शकर थे हम
हमारी छोटी छोटी ख़्वाहिशें हर तौर हम-आहंग थीं इतनी