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नज़्म
दौड़ा मय-ख़्वार कि इक जाम-ए-मय-ए-तुंद पिए
ख़्वाहिश-ए-मर्ग मिरे सीने में होने लगी ज़ब्ह
मुईन अहसन जज़्बी
नज़्म
ज़ीस्त आशोब-ए-ग़म-ए-मर्ग का तूफ़ाँ ही सही
मिल ही जाता है सफ़ीनों को किनारा आख़िर
सूफ़ी ग़ुलाम मुस्ताफ़ा तबस्सुम
नज़्म
कुछ लोग ये कहते हैं कि अच्छा या बुरा कुछ भी नहीं है
तक़रीब-ए-विलादत हो या हंगाम-ए-दम-ए-मर्ग
बलराज कोमल
नज़्म
ख़्वाहिश-ए-साया-ए-गेसू-ए-परेशाँ ही नहीं
जन्नत-ए-आरिज़-ओ-लब की भी तमन्ना न करूँ