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नज़्म
चिलचिलाती धूप में मैदान को चढ़ता बुख़ार
आह के मानिंद उठता हल्का हल्का सा ग़ुबार
जाँ निसार अख़्तर
नज़्म
जो दोनों सम्त से साया-फ़गन पेड़ों तले भी चिलचिलाती धूप फैली हो
जहाँ हर रोज़ जाना हो
सलमान बासित
नज़्म
हर किसी की था ज़बाँ पर अल-हफ़ीज़-ओ-अल-ग़ियास
चिलचिलाती धूप से था ज़र्रा ज़र्रा बे-क़रार