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नज़्म
तमाम अशआ'र-ए-तिश्नगी के लहू में पलकें डुबो रहे हैं
न रंग-ओ-नग़्मा न जाम-ओ-मीना न रक़्स-ओ-मस्ती
बलराज कोमल
नज़्म
देख कर बे-साख़्ता होता है दिल बेहद मगन
हर तरफ़ इक जल्वा-ए-शादाब-ए-हस्त-ओ-बूद है