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नज़्म
सरीर काबिरी
नज़्म
इस महीने में ग़ारत-गरी मनअ थी, पेड़ कटते न थे तीर बिकते न थे
बे-ख़तर थी ज़मीं मुस्तक़र के लिए
aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair
jis ke hote hue hote the zamāne mere
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इस महीने में ग़ारत-गरी मनअ थी, पेड़ कटते न थे तीर बिकते न थे
बे-ख़तर थी ज़मीं मुस्तक़र के लिए