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नज़्म
और इक कोने में वो दूर खड़ी जान-ए-हयात
अपने अफ़्सुर्दा से चेहरे पे जो डाले थी नक़ाब
राग़िब देहलवी
नज़्म
शोला-ए-हुस्न-ए-अज़ल रूह-ए-जहाँ जान-ए-हयात
सुब्ह के नूर के मानिंद निगाहों को मुनव्वर करता
वहीद अख़्तर
नज़्म
गर इश्क़ किया है तब क्या है क्यूँ शाद नहीं आबाद नहीं
जो जान लिए बिन टल न सके ये ऐसी भी उफ़्ताद नहीं
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
जाने ये किस ने चोट लगाई जाने ये किस को प्यार करे
तुम्ही कहो हम किस को ढूँडें आहें खींचे नाम न ले
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
सब जान के सपने देखते हैं सब जान के धोके खाते हैं
ये दीवाने सादा ही सही पर इतने भी सादा नहीं यारो
इब्न-ए-इंशा
नज़्म
कैसे कैसे अक़्ल को दे कर दिलासे जान-ए-जाँ
रूह को तस्कीन दी है दिल को समझाया भी है
सय्यदा शान-ए-मेराज
नज़्म
सिर्फ़ उसी की तर्जुमानी है तिरे अशआ'र में
जिस सुकूत-ए-राज़-ए-रंगीं को कहें जान-ए-हयात
नाज़िश प्रतापगढ़ी
नज़्म
जुनून-ए-शौक़ के दम से है इज़्ज़-ओ-शान-ए-हयात
यही है रूह-ए-मोहब्बत यही है जान-ए-हयात