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नज़्म
अदीम हाशमी
नज़्म
मगर मिरी बे-हिसी ने हर एक हमला-आवर का सर झुकाया
इसी गुज़रगाह पर हूँ इस्तादा और शायद यहीं रहूँगा
अज़ीज़ तमन्नाई
नज़्म
सर-ए-सज्दा झुकाया इस क़दर शौक़-ए-इबादत ने
जबीं मेरी तुम्हारा आस्ताँ मालूम होती है