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नज़्म
ढल चुकी रात बिखरने लगा तारों का ग़ुबार
लड़खड़ाने लगे ऐवानों में ख़्वाबीदा चराग़
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
यूँ गुमाँ होता है गरचे है अभी सुब्ह-ए-फ़िराक़
ढल गया हिज्र का दिन आ भी गई वस्ल की रात
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
नज़्म
जब आधा दिन ढल जाता है तो घर से अफ़सर आता है
और अपने कमरे में मुझ को चपरासी से बुलवाता है