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नज़्म
हम ने इस अहमक़ को आख़िर इसी तज़ब्ज़ुब में छोड़ा
और निकाली राह मफ़र की इस आबाद ख़राबे में
अख़्तरुल ईमान
नज़्म
सय्यद मुबारक शाह
नज़्म
किसी को जुस्तुजू है उस वजूद-ए-पाक को जाने
तज़ब्ज़ुब में कोई है उस को माने भी तो क्यूँ माने
शिफ़ा कजगावन्वी
नज़्म
वो तज़ब्ज़ुब कि जिसे कम-सिन-ओ-कम-ख़्वाब निगाहों के भरोसे ने
गुलाब और चमेली की महक बख़्शी थी
अय्यूब ख़ावर
नज़्म
हो तो सकता है किसी देव के जैसे मैं भी
ले उड़ूँ तुझ को कहीं दूर की दुनियाओं में
मोहम्मद ओवैस मालिक
नज़्म
कुछ अलाव कि आँखों में जलते रहे और बुझते रहे
आगही जो तज़ब्ज़ुब की दलदल में थी दम-ब-ख़ुद
मुमताज़ मालिक
नज़्म
चाँदनी क्या हो जहाँ खुल के निकलती न हो धूप
ज़िंदगी का ये तज़ब्ज़ुब ये जुमूद-ओ-विज्दान
शहाब सर्मदी
नज़्म
गए वक़्तों का तज़ब्ज़ुब नए वक़्तों का अज़ाब
आ कि शानों से गिरा आते हैं उस पार कहीं